परमानंद वर्मा
( शोर संदेश ) तमाशा खुद न बन जाना देखने वालों के तर्ज पर.एक दिन क्या हुआ हसदेव से मुलाकात करने पहुंचा था तब शुरु में बात सौजन्यपूर्ण रहा लेकिन अचानक गुस्से में भरकर कहा, सब लोग मेरी बर्बादी का तमाशा देख रहें है। नदी, नाले, पर्वत, पेड पौधे, हाथी, शेर, भालू, चीता, सियार, बंदर, पक्षी, चीटियां सहित सभी जीव जन्तु, दर.दर भटक रहें हैं। दुख मुझे मेरी अपनी जंगल की नहीं है लेकिन इन मूकधारियों की है। भूखे प्यासे भटक रहें हैं इस गांव से उस गांव। इनकी ऐसी हालत करनेवाले शैतानों सावधान... तमाशा खुद न बन जाना तमाशा देखने वालों।
कुलेश्वर महादेव, राजिम दरशन करके घर आय बर लहुटत रेहेंव तब कोनो माइलोगिन के बोमफार के रोये के आवाज मोर कान मं टकरइस। एती-ओती चारों मुड़ा नजर फइलाएव, फेर एको झन माइलोगिन नइ दीखिस। सोचेंव, मन कइसे भरमाय असन लागत हे? आवाज तो रोये के आवत हे फेर देखउन कइसे नइ देवत हे? कोनो भूत, परेतिन, चंडाल अउ चंडालिन तो नइ होही?
महानदी के छोर मं आगेंव, अउ बने हीरक के निहारेंव, अवइया-जवइया मन ऊपर घला नजर दउड़ायेंव फेर ओमन तो बने हांसत, कुलकत मंदिर आवत-जात रिहिन हे। धीरे-धीरे ओ कोती गेंव जेन कोती ले रोये के अवाज आवत रिहिसे।
देखथौं, एक झन खोलदावन असन जघा मं नदी हा अपन छोटे बेटा नरवा ला गोदी मं बइठार के अइसे कलपत अउ रोवत रिहिसे जइसे कोनो ओकर गोसइयां मरगे हे।
तीर मं जाथौं अउ पूछथौं- का होगे मोर महतारी, तैं याहा सावन पूरनमासी के दिन, जब लोगन उछाह मनावत हे, कुलेश्वर महादेव के पूजा पाठ करत हे, दूध, दही, घी लगा-लगा के अभिषेक करत हे, फूल-पान, नरियर चढ़ावत हे अउ तैंहर अतेक सुग्घर पावन पबरित दिन मं आंसू बहावत बइठे हस, बेटा ला धरके?
मोर पूछई-गुछई मं रोवई-गवई बंद होइस। ओहर कहिथे- जेकर ऊपर पहाड़ गिरथे, बिपत आथे ओला उही जानही बेटा।
नदी के दुख ला देख ओला आघू पूछे के हिम्मत नइ होइस। जरे मं नून डारना अच्छा नइ होवय। तभो ले दुख के, रोये के कारन का हे एला जानबा तो होय। इसी समझ के पूछे के थोकन हौसला बनाएंव।
मोर महतारी, अतका तो जान सकत हौं के तोर रोये के का कारन हे अउ इहां अइसन ओंटा-कोंटा मं?
नदी कहिथे- जान के का करबे बेटा, अउ तैं करे का सकत हस। दुखिया मन के कोनो नइ होवय बाबू। ओहर दुख मं जनम लेथे, दुख मं पलथे अउ दुखे झेलत आखिर मं दम तोड़ देथे।
नदी के बात ल सुन के मोर दिमाग काम करना बंद कर दीस, अइसे लगिस जइसे बिजली के करंट लग गे। सोचेंव- का करौं, का नइ करौं। देखथौं- ओकर गोदी मं नरवा खेलत राहय, कभू ओकर मुंह, कान, गाल मा मया पीरित देखावय तब कभू दूध पीये खातिर स्तन ला धर के मुंह ला ढेंठी मं लगा के चुहके के कोशिश करत राहय।
अपन आंखी के आंसू ला पोंछत अउ लुगरा के अचरा ला मुंड़ मं ढांकत बताथे- बेटा, तैं मोर दुख पूछत हस ना, रोवइ-गवई के कारन जानना चाहत हस न, तब सुन- मैं उही महानदी हौं जेकर चारों मुंड़ा ए पार ले ओ पार कभु रेती के पहाड़ खड़ा हो जाय राहय, कुलेश्वर महाराज साक्षी हे अउ आज देख, का हालत हे। मोर छाती ला रापा, कुदारी, बुलडोजर मं कोड़-कोड़ के निकालत हे। मैं कहां ले ओगरौं, कहां ले लानौ। मोर शरीर ला देख, मोर हाथ-गोड़ ला देख, छाती ल देख, सब पिचकगे हे। राक्षस मन बरोबर ट्रेक्टर ट्राली मं भर-भर के, मोर छाती मं चढ़-चढ़कर बस बेहाल कर दे हे बेटा। कुलेश्वर भगवान का करहि? ये मोर सब दुख ल जानत हे, देखत हे, फेर कोनो काम के नइहे। करत राहौ तुमन पूजा-पाठ अउ अभिषेक, फेर मोर बर ये तो सिरिफ पथरा के भगवान हे, ओकर छोड़े कुछु नहीं।
बिहान दिन सिहावा पर्वत पहुंचेंव, ओकरो हालत जतर-कतर हे। चेहरा लटके-उतरे। रोथे तब रोवासी नइ आवय। गोठियाय के कोशिश करथे तब बक्का नइ फूटय तइसे कस गतर होगे राहय। थोथना ल उतरे कस देखेंव तब मोरो कुछु पूछे-पाछे के हिम्मत नइ होवत रिहिसे। फेर का करबे कोनो ला दुखी, उदास देखथौं तब रेहे नइ सकौं।
पूछथौं- कइसे का बात हे सिहावा, कइसे फटीचर छाप हालत हे तोर, कोन करे हे अइसन हालत?
हाथ ल धर के अपन कोती खींचथे अउ कान करा अपन मुंह ल दता के कहिथे- धीरे बोल, इहां बड़े-बड़े राक्षस के बसेरा हे, ओकर गण मन चारों मुड़ा गिंजरत रहिथे, निगरानी करथे। कोन आवत हे, कोन जावत हे?
सोचेंव- जउन परबत मं ऋंगी रिसि जइसन महान साधक तपस्या करे हे, साधना करे हे ओ सिहावा परबत अतेक डर, भय, आतंक मं जीयत हे, अपन समे गुजारत हे?
पूछेंव- कइसे सिहावा, अतेक आतंक तोला काके हे?
ओहर फेर धीरे बोले के इशारा करत कहिथे- देख चारों मुड़ा- छाती, हाथ, गोड़, मुड़ी मन के का हालत कर देहे। ओमन ला गिट्टी अउ चट्टान चाही तेकर सेती ओ राक्षस मन बड़े मशीन धर-धर के आथे अउ ये परबत ला तहस-नहस कर डरे हे। मोर जीना हराम कर दे हे। अब सिहावा नहीं, सिरावत जाथौं, मोर दम घुटत जात हे।
भारी करलई हे, जेती जाबे तेती चारों मुड़ा दुखे-दुख हे, सुख के कोनो सुराग नइ मिलत हे। नगरी-सिहावा ले घूमके अपन गांव आगेंव।
एक दिन बिलासपुर के मितान हा फोन करथे। का भई मितान, अरे आना घू्मे-फिरे ल, निच्चट घरखुसरा चिरई असन खोंधरा मं घुसे रहिथस। ओला केहेंव- ले हौ, आवत हौं।
मितान ह हसदेव जाय के योजना बनाय रहिथे। ओ हा अपन काम-बुता मं लगे राहय। अउ कुछ समय के बाद मंहु पहुंचेंव हसदेव के जंगल मं। जान दे, इहां तो अइसे कोलाहल मचे हे तेन ला जइसे अभी इजरायल अउ लेबनान के झगरा मं हजारों, लाखों मनखे बेमौत मारे गे हे। चारों मुड़ा चीख पुकार बचा लौ- बचा लौ...। बम बारुद बरसावत हे, टैंक बरसाय कस हाल हसदेव जंगल के होवत हे।
महानदी कस हाल हसदेव के घला होगे हे। अतेक आतंक, मारकाट। राक्षस बन गे हे मनखे मन। हजारों लाखों पेड़ रोज काटत हे। जंगली जानवर जंगल छोड़के गांव-गांव भागत फिरत हे। बिन दाई-ददा के लइका मन बरोबर। हाथी, भालू, शेर, चीता, हिरण, बेंद्रा, चिरई-चिरगुन, सांप डेडु, कीड़ा-मकोड़ा, चांटी जइसे कतको परकार के जीव-जन्तु अपन-अपन रेहे के ठिहा खोजत हे, फेर जंगल मं रेहे के ठिकाना नइ मिलत हे।
ये जंगल के विनाश ल देखके मोरो आंखीं मं आंसू आगे। हसदेव पूछथे- भइया, तोर आंखी मं आंसू?
ओला मंय बताथौं- तोर दुख समझगेंव फेर मंय ये नइ समझ पायेंव कि अभी तक कइसे जीयत हस, तोर परान तक कइसे छूटे नइहे?
मोर अतका बात ल सुनके बिन दाई ददा कस लइका जइसे कहूं मेला-ठेला मं भुला जथे तब बोमफार के रोथे वइसने हसदेव रो डरिस। ओहर कहिथे- मोर बरबादी के मोला कोनो दुख, गम नइहे भैया, दुख हे मोर ये लइका हाथी, भालू, शेर, सियार, हिरन, बिंद्रा, सांप-डेडु, चांटी अउ असने कतको जीव-जन्तु मन के। ये मन कहां रइहीं, कहां जांही, कहां बसही, कोन दिही एमन ला खाय-पीये बर? सब तना-नना होगे के भटकत हे।
अचानक देखथौं- हसदेव के चेहरा गुस्सा मं भरगे राहय, कहिथे- अपन दुख ला ता मंय कइसनो करके झेल लेहूं भइया, फेर कोनो महतारी बाप अपन आंखी के आघू मं लइका मन ला लांघन-भूखन मरत नइ देख सकय। ओ अंधरा के औलाद मन जइसन मोर बिनास करिन, मंय सराप देवत हौं, जइसे कौरव कुल के विनास होइस ना, तइसने एकरो मन के होके रइही।